उत्तराखंड को उत्तर प्रदेश से अलग करने के पीछे आर्थिक, भौगोलिक, सांस्कृतिक और कई तरह के कारण रहे।
इस पहाड़ी राज्य को अपनी एक अलग पहचान मिले इसके लिए लगभग सौ साल का संघर्ष चला और 40 से अधिक लोग इस संघर्ष में शहीद हुए।
उत्तराखंड का अलग राज्य बनने का सफर उतना आसान नहीं था, जितना आज हमें लगता है।
इस पहाड़ी राज्य की पहचान को हांसिल करने के लिए 42 लोगों ने अपनी जान कुर्बान की और हजारों-लाखों ने सालों तक आंदोलन किया।
उत्तराखंड को एक अलग राज्य बनाने की मांग सर्व प्रथम 1897 में उठी थी, जब ब्रिटिश हुकूमत का समय था।
तब के समय में पहाड़ी लोगों ने महारानी से एक अलग राज्य बनाने की मांग की लेकिन उस पर कोई ध्यान नहीं दिया गया था।
उत्तराखंड के लोगों ने 1923 में भी संयुक्त प्रांत के राज्यपाल के सामने एक बार फिर मांग रखी और 1938 में श्रीनगर गढ़वाल में कांग्रेस अधिवेशन के दौरान पंडित नेहरू ने इस मांग का समर्थन भी किया। हालाँकि, फिर भी पहाड़ी लोगों का एक अलग राज्य का सपना अधूरा रह गया।
ये भी पढ़ें: कुछ तथ्यात्मक विश्लेषण से समझिए महाराष्ट्र में किसकी बनेगी सरकार
भारत को अंग्रेजों से आजादी मिलने के बाद भी उत्तराखंड की जनता के लिए नए राज्य की स्थापना की राह चुनौतीपूर्ण ही रही।
1950 में संयुक्त प्रांत का नाम बदलकर उत्तर प्रदेश कर दिया गया। लेकिन, उत्तर प्रदेश की सरकार हिमालयी क्षेत्र की विशेष आवश्यकताओं को नहीं समझ सकी थी।
इसके चलते पहाड़ी लोगों ने एक बार फिर से एक अलग राज्य बनाने की मांग उठाई और उत्तराखंड क्रांति दल का गठन हुआ।
बतादें, कि 90 के दशक में आंदोलन तेज हुआ और 1994 में हालात इतने खराब हो गए कि आंदोलन काफी हिंसक हो गया।
कई आंदोलनकारियों की शहादत और संघर्ष के बाद 9 नवंबर, 2000 को उत्तरांचल के नाम से इस पहाड़ी राज्य की स्थापना हुई। साल 2007 में इसका नाम बदलकर उत्तराखंड कर दिया गया।